...

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वो जो तुमसे लगते रहे!
भावनाओं की कचहरी में
उन पर लगता रहा इल्ज़ाम
पत्थर दिल होने का
वो चुपचाप पथरीली अहल्याओं को
अपने स्नेहिल स्पर्श से पुचकारते रहे।

चाहे तो कोई उन्हें कहता रहे
छलिया, वस्त्रचोर इत्यादि
लेकिन हिसाब और उसूलों के पक्के
वो एक -एक सूत द्रौपदियों को लौटाते रहे।

जब नारीवाद की एक अदालत में
उन्हें पूरी तरह से शोषक उत्पीड़क
घोषित कर ही दिया गया था
वो तब भी प्रथाओं की आग में
जलती सतियों को बचाते रहे
कभी राजाराम कभी अंबेडकर तो कभी
ज्योतिबा फुले के रूप में ये ईश्वर
बहरी भीड़ को आवाज़ लगाते रहे।

कभी ख़ुद अपनो के ही षड्यंत्रों की मारी...