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भक्ति के पद
हरि ! तुम हरो जन की भीर द्रोपदी की लाज राखी, तुम बढायो चीर । भक्त कारण रूप नरहरि, धर्यो आप सरीर। हिरनकश्यप मार लीनो, धर्यो नाहिन धीर। बूडते गज ग्राह मार्यो, कियो बाहर नीर। दासी मीराँ लाल गिरधर, दुख जहाँ तहाँ पीर। पग घुँघरू बाँध मीराँ नाची, रे। मैं तो अपने नारायण की, आपहि हो गई दासी रे। विष का प्याला राणा जी ने भेज्यो, पीवत मीराँ हाँसी लोग कहे मीराँ भई बावरी, बाप कहे कुल नासी रे। मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, हरिचरणाँ की दासी रे।।
© Kartik dubey

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