...

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एक मंडी...
नसीबों की एक मंडी मै, घूम रहा था मै लिये एक झोला
तब कुछ शब्द सुनाई दिये
'आओ आ जाओ, देखलो, देखने का कोई पैसा नही, आओ आ जाओ'

मंडी ही तो थी, तो मुड़ गए.
आवाज आ रही थी
एक रंगीन शानदार सपनों की दुकान से.
कांच की संदूक मे रखे थे सपने
कुछ सफेद, कुछ मदहोश, कुछ नशीले, कुछ काले भी थे
पर हर एक बड़े लुभावने थे

सोचा, आया हु, तो खरीद लेते है एक सपना
दुकानदार को मेरा 'budget' बताया,
कहा 'दिखाओ मुझे एक सपना'
मुस्कुराके बोला
'क्या मज़ाक कर रहे हो साहब, इतने मै कहा मिलता है सपना. फिर भी चाहो तो दुकान बंद होने के बाद आना '
'क्यूं , बंद होने के बाद क्यूं. मै चोर भिकारी थोड़ी हूं?' मैं बरस पड़ा
'गुस्सा मत होना सहाब, इतने मैं तो सिर्फ मिलेगा कुछ हिस्सा, किसीका भुला हुवा. इधर उधर से जुगाड़ करके, बनालो अपना सपना'
अब मै मुस्कुराया 'किसीके हिस्से का मै नहीं खाता' शान से कहा
'जब औकात का पता नहीं तब क्यों चले आते हो यहा, आपको चाहिए पेट भरने का नुक्सा. आप सिर्फ दूर से देखा करो कोई सपना'

खून उबल रहा था, पर बात तो वो सच केह गया था
कांच की संदूक को दूर से देखा मूड के
नसीबों की मंडी मै निकल पड़ा, लिए एक झोला