...

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क्या करूँ...
कोई ख़्याल ज़ेहन में न आये तो क्या करूँ !
न रोये चश्म न लब मुस्कराये तो क्या करूँ !

लाख सजूँ-सँवरू औ बना लूँ आईनें दीवार,
तेरा अक्स निगाहों से न जाये तो क्या करूँ !

तोड़ लाऊँ सितारे और जला दूँ दिये हजार,
बज़्म फिर भी न झिलमिलाये तो क्या करूँ !

मेरी ख़्वाहिशों का मुक़द्दर हो जब टूटा पड़ा,
हक़ीक़त उसपे सितम ढ़हाये तो क्या करूँ !

रात हो अँधेरी परस्तिश'और तन्हाई भी हो,
ऐसे हाल में गर वो ‌याद आये तो क्या करूँ !
© parastish
चश्म - आँखें
बज़्म - महफ़िल

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