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शून्य में विलीन!
टकटकी लगाए
देखता रहता था
मैं
सन्ध्याकाल में,नदी के तट पर
दूर क्षितिज के पार उस शून्य को
जिसमे विलीन हो जाने को मन करता था,
उसका निमित्त वेदना रही
वह विरह की वेदना जिसके शूल चुभते थे मुझे
जिस विरह वेदना ने कर दिया था
तन और बदन छलनी
आत्मा तक पर छाले हो चुके थे,
मैं रो नही सकता था
पीर को सिर्फ सह सकता था
जलता रहता था
छटपटाता रहता था
अश्रुपूरित आँखों को छुपाते हुए
अन्तर्मन की तड़प को समेटे हुए
दूर उस शून्य को देखता रहता था
हिय में आशा का दीप जलाए
कब तक राह को तकता मैं
आखिर हूँ मैं भी मनुज
कब तक तुझको सह ता मैं
तुम क्या जानो भीगी हुई पलकों पर
कितने अरमान मर चुके है,
इन कम्पित अधरों पर भी
कितने अहसान मर चुके है।
इक तुम ही थे जिसको मेने
अपना विराट गगन माना था
स्वच्छंद घूमने को एक तेरा ही
सहारा मांगा था।
अब तो अन्तर्मन के सारे चिराग बुझ चुके,
अब व्याकुलता भी निस्तेज हो चुकी है
था कभी हरियाली सा
अब रेगिस्तान बन चुका हूँ मैं
अब बस एक ही अपेक्षा रह गई।
दूर
उस
क्षितिज के पार
उस शून्य
में विलीन हो जाऊं मैं
बस अब विलीन हो जाऊं मैं।
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