शून्य में विलीन!
टकटकी लगाए
देखता रहता था
मैं
सन्ध्याकाल में,नदी के तट पर
दूर क्षितिज के पार उस शून्य को
जिसमे विलीन हो जाने को मन करता था,
उसका निमित्त वेदना रही
वह विरह की वेदना जिसके शूल चुभते थे मुझे
जिस विरह वेदना ने कर दिया था
तन और बदन छलनी
आत्मा तक पर छाले हो चुके थे,
मैं रो नही सकता था
पीर को सिर्फ सह सकता था
जलता रहता था
छटपटाता रहता था
अश्रुपूरित आँखों को छुपाते हुए...