...

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उम्मीद
सांसों के इस संघर्ष में उम्मीदें ही साथ हैं,
इन्सानियत ने तो कबके घुटने टेक दिये,
सरेआम काले बाजारों में बिक रही हैं वो सांसे,
जो कभी घर के आंगनो में बिखरी थी,
सड़को पे बैठा है आज वो,
जिसने बीती रात महल बनाए थे,
ठगा सा सरेआम रो रहा है आज वो,
जिसने कुदरत की खिल्ली उडाई थी,
अपनी तिजोरियां खोलने को तैयार है आज वो,
जिसने जीवन भर बस व्यापार किया,
हाथ जोड़े, झुकाये मस्तक अपराधी सा खड़ा है आज वो,
जिसने ना कभी झुककर माटी को नमन किया,
पर यह कुदरत का नियम है,
"जो बोयेगा,वही काटेगा"
लोहे(आरी)के बदले लोहा ही थमाएगी (सिलिंडर),
पर फिर भी उम्मीद रख,
यह माँ है,
बिलखते हुए देख तूझे आज भी सिने से ही लगाएगी।