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परछाई..
अंधेरी गलियों में भटक रहा था.अनि़शिचता में चल रहा था दिल ना जाने क्यूं बेचैन सा था शायद अकेलेपन से डर रहा था तभी कुछ दूर रोशनी सी आयी.अंधेरे को देख परछाई मुस्कुरायीलगा जैसे कुछ कह रही होअपने होने की दस्तक दे रही बोली मै कब गई थी अंधेरे मै हर तरफ मै ही थी जाने क्यूं खुद को अकेला पाता है तेरे हर कदम पर मेरा कदम अता ह अंधेरा अब भी था रास्ते सुनसान थे भटके मन में अनिशिचताये़ं थीपर अब बेचेनियां कुछ कम थी क्युकी क्षितीज संग मेरे मेरी परछाई थी...
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