...

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वीरता की झलक
रात्रि बीतने को हो आई थी।
ऊपर तारे अब भी टिमटिमा रहे थे,
चाँदनी अपनी छटा समेट जाने की ताक में थी,
मगर मैं, अब भी वहीं स्तब्ध खड़ा
साक्षी बन रहा था बीती रात का।
सफ़ेद बर्फ की चादर के लहूलूहान होने का।
रात्रि का तीसरा पहर था वो,
दोनों और से लगातार होती गोलीबारी,
सन्नाटे को चीरती प्रतीत होती थी।
कायरों ने आज फिर छुपकर
आघात किया था।
निहत्थे, सोये सैनिकों पर,
गोलियों की बौछार से, उनकी चीखों
से पूरा आसमाँ गूँज उठा।
देशभक्ति का ऐसा जूनून,
वीरता, शौर्यता की ऐसी छवि
कदाचित किसी और रोज, न देख पाऊं,
सो ठहर गया वहीं कुछ देर।
रक्त का फव्वारा छूटते बदन को,
बेपरवाही से लड़ते देख,
एकपल को मैं भी सहम सा गया ।
बारूदों के धुएँ के बीच,जज़्बे से लबालब,
उन वीरों को ज़ुझते देख, सर स्वतः ही झुक गया,
उनकी माँओं के सम्मान में।
जिन्होंने, ऐसे पुत्रों को जन्म दिया था।
अफरातफरी के बीच उन वीरों की तत्परता,
हाथों में जीत की मशाल लिए,
शत्रु का वध करते देखा।
चारों ओर बिखरी लाशों के बीच,
हर वीर को कफ़न बाँधे, मातृभूमि पर मरते देखा।
धन्य है वह धरती, जिसकी गोद
ऐसे प्रहरियों से सजी हो।
मैं समय न होता तो संभवतः
कूद पड़ा होता इस संग्राम में।
किन्तु विधाता के विधान से बँधा मैं
वहीं मूकदर्शक, बन खड़ा रहा,
उन वीरों के समक्ष नतमस्तक,खुद पर गर्वित।