...

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मैं जानता हूँ |
मैं नहीं जानता
हम कभी मिलेंगे कि नहीं,
मेरी उलझने और तुम्हारी मजबूरियां
कभी मिटेंगी कि नहीं|

पर मैं जानता हूँ
तुम्हारी देहरी से आती
सोंधी खुशबु
मेरे मन की बगिया को
सदा महकाएगी|

और जब वक्त आएगा
तो इन बादलों के परे,
सत-असत के परे,
समय की जकड़न के परे,
दो जन निरंजना के किनारे
उस प्राचीन दिव्य-वृक्ष के नीचे
एक दूजे में लिन हो जाएंगे
सदा, सतत, साथ,
प्रकृति, हम और समाधि!








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