...

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टटूटता जा रहा हूं मै खंड खंड।
पूर्णिमा की अर्ध रात्रि, हड्डियों को गलाती ठंड
चांद की हलकी सी बारिश में ओढ़े दुशाले,
टूटता जा रहा हूं मै खंड खंड।

ग़ज़लों का तरननुम है हल्का हल्का,
हवाओं में महकने लगी है तुम्हारी ही गंध।

कशमोकस है की तुमसे कहूं कि नहीं,
ना की दलील है तुम्हे खबर तो है कदर ही नहीं,
मोहबत तोड़ रही है, हर दलील का घमंड।

रात ढलने लगी है, पलके थकने लगी है,
बेरुखी तुम्हारी और बर्फीली होने लगी है,
कुछ तो बताओ कैसे पिघलाऊं ये हिमखंड।

सपनों में ही सही गले मुझको लगाओ,
मेरे टूटे हुए टुकड़ों को मिलाओ,
टूटने कल आऊंगा फिर,
आज अब करदो मुझको फिर से अखंड।

पूर्णिमा की अर्ध रात्रि, हड्डियों को गलाती ठंड
चांद की हलकी सी बारिश में ओढ़े दुशाले,
टूटता जा रहा हूं मै खंड खंड।

© @bhaskar