...

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विसर्जन
मूर्ति विसर्जित हो चुकीं,
दर्शकों की भीड़ घरों को लौट गई है।

सारे पांडाल सूने पड़े हैं,
ढेरों नारियल टूटे पड़े हैं।

ढोलकी की ताल ख़ामोश,
सन्नाटे बेख़ौफ़ पसर गए हैं।

छा गई है साँझ की बेला,
वो हाथ जोड़ खड़ा अकेला।

सूझता नहीं कुछ भी कैसे,
मुश्किलों का घेरता झमेला ।

लौटने का मन नहीं था,
पर ज़िम्मेदारियाँ संदेशा भेज गईं हैं।

आँखों में आसूँ लिए कुछ काम पर चल दिए,
कुछ अभी भी वहीं पर, सामानों को है समेट रहे ।

पाँव में मिट्टी लपेटे,
रोजमर्रा की शुरुआत हो गई हैं।

कुछ देर धूम धड़ाके में गम भुलाये थे,
हम भी तो माता तेरे दर्शन को आये थे!
© Shradda Sri