...

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प्रेम हलाहल...
मन विह्वल और चित अशांत,

मुख मंडल की मलिन कांति।

सजल नेत्र की पीड़ित मुस्कान,

देख द्रवित हूं प्रीतम यह जान।

शैलकुमुदिनी सम न चुप रहती,

शब्द प्रस्फुटित होते तब सुनता।

मंथन मन में मदरांचल पर्वत सा,

प्रेम हलाहल बनकर शिव पीता।
© SÀTYÀM_pd @SPD_