ग़ज़ल:- सौ दरारें पड़ी हैं दर्पण में
तुम नहीं हो जो मेरे जीवन में
मौत ही मौत है घर आंगन में
अब मेरा हुस्न एक पत्थर है
सौ दरारें पड़ी हैं दर्पण में
हो...
मौत ही मौत है घर आंगन में
अब मेरा हुस्न एक पत्थर है
सौ दरारें पड़ी हैं दर्पण में
हो...