...

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आस्तीन का सांप
ये ज़ख्मों का शहर है, क्या सुकून ढ़ुढ़ते हो।
बिखरीं पड़ी है लाशें, क्या जुनून ढ़ुढ़ते हो।।
चुप्पियों को तोणा तो कहर आ जायेगा।
नाव शाहील में है डगमगा जायेगा।।
पांव धरती पे है फिर भी मून ढ़ुढ़ते हो।
बिखरीं पड़ी है लाशें, क्या जुनून ढ़ुढ़ते हो।।
आस्तीनों में है कितने रज्जू छिपे।
कब्र के पास हैं कब्र बिज्जू छिपे।।
जान मुश्किल में है यहां सब जुझते हो।
बिखरीं पड़ी है लाशें क्या जुनून ढ़ुढ़ते हो।।
आंख रोती मगर अश्क गीरता नहीं।
अश्क जो भी दिया मगर घिरता नहीं।।
काल की कोठरी में नामचीन ढ़ुढ़ते हो।
बिखरीं पड़ी है लाशें क्या जुनून ढ़ुढ़ते हो
स्व रचित (अभि)
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