...

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कम्बख़त इस रात का क्या करे
किसी तरह दिन भर खुद को व्यस्त रख लेते हैं,
पर कम्बख़त इस रात का क्या करे,
चली आती हैं रोज पुरानी यादों का सैलाब लिए आँसू बन कर बह जाती हैं वो यादें
चाहें फिर न भी हो रोने के इरादे,
पर अश्कों पर किसका जोर,
कुछ सुनने नहीं देता ये अंतर्मन का शोर
फिर क्या, लिख देते हैं हम उन बेबाक अल्फाज़ो को
किसी तरह व्यस्त रख लेते हैं दिन भर खुद को
पर कम्बख़त इस रात का क्या करे
आसान नहीं होता उस शक्श को भूल जाना
जिसे तुमने था सबसे करीब से जाना
अब तो रातें लंबी लगती हैं
हर उस गुनाह को क़ुबूल कर लेते हैं
जो शायद हमने कभी किया ही न हो
भले ही रात को तकिया गीला हो जाये
पर अगली सुबह फिर ऐसे उठते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो
अपने अश्कों को छिपाने की हर मुमकिन कोशिश करते हैं
फिर किसी तरह व्यस्त रख लेते हैं दिन भर खुद को
पर कम्बख़त इस रात का क्या करे।