...

11 views

" असहाय बचपन "

दिन आज फिर निकला है
सूरज उसी रौशनी के साथ आया है
पर आज बात कुछ और है
आज किसी नन्हे ने दिल को पिघलाया है
भूख की तड़प इतनी बढ़ जाये कि
पत्थर में भी खाना नज़र आये
प्यास इतनी संगीन हो जाये कि
आँखे आंसुओ से प्यास बुझाये
अपनों से ही दर्द इतना मिल जाये कि
रिश्तों से ही भरोसा उठ जाये
अपना ही हाथ उठकर
अपना ही गला दबाने को मजबूर हो जाये
नन्ही हथेलिया खिलौनों की बजाए
भीख़ मांगने के लिए फैलाये
उस पर भी मांगी भीख उसे ना
बल्कि उसकी बोली लगाने वालो को मिल जाये
तब एक स्वाभिमानी बचपन कुछ ऐसे थम जाता है
सांसों को रोक धड़कन को समजता समझाता है
सूरज उजाला लेकर आता है खुशनसीबों के लिए
रात की बेचैनी ही होती है गरीबो के लिए
रात आज फिर आयी थी
सूरज आज फिर डूबा था
पर आज बात कुछ अलग थी
की सूरज नन्हे के साथ डूबा था

© Gayatri Dwivedi