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जलियांवाला बाग हत्याकांड ~ १३ मार्च १९१९
आया माह वैशाख का, हर तरफ खिली हरियाली थी,
सुगंधित थे पुष्प यहाँ के, हरी-भारी हर डाली थी।
नील हुआ था विशाल गगन, मिट्टी चमकती खाकी थी,
खास दिन था सबके लिए, उस दिन ही तो बैसाखी थी।

बाग में मेला लगा था, बच्चे-बूढ़े सब आये थे,
कोई बेचने, कोई खरीदने सब त्योहार मनाने आये थे।
फिरंगियों के खिलाफ एक शांत सभा की भी तैयारी थी,
कोई बड़े संग्राम की एक छोटी सी चिंगारी थी।

एक दुर्जन, एक पापी जनरल डायर आया था,
सहस्त्र सिपाहियों संघ बाग में हत्या का फरमान लाया था।
उस पापी ने, उस नरभक्षक ने गोली जब चलवाई थी,
धरती मा चीखी थी मेरी, दर्द से करराही थी।
लाल हुआ था बाघ वो सारा, हर तरफ बिछी लाशें थी,
हर आंख में था आंसू उस दिन, थमी हुई हर सांसे थी।
चलती हुई गोलियों से ना जाने कितनो ने घर के चिराग खोये थे,
कितने विधुर-विधवा हुए, कितनो के अनाथ रोये थे।
लाल सिंदूर से मांग भरती, जो कल तक एक सुहागन थी,
आज लिपटी थी लाल खून से, हाय! कितनी बड़ी अभागन थी।
कितने दिनों तक फिर कर्फ्यू की धारा भी तो लगी रही,
लाशें जो छलनी पड़ी थी, कितने दिनों तक पड़ी रही।

यही सब देख रहा पंजाब का एक बंदा था,
इक्कीस साल बाद जवाब दिया दर्द का, जो दिल में अभी तक ज़िंदा था।
बड़ी चालाकी, बड़ी चपलता से, बंदूख विदेशी सभा में छिपा कर लाया था,
चौड़ा कर सीना अपना छः की छः गोलिया, दुष्ट डायर पर दाग आया था।
नाम उधम सिंह था उसका, आत्मसमर्पण कर गिरफ्तारी को भी मान गया,
शहीद-ए-आज़म का पूरे जग ने लोहा मान लिया।