शायद कभी नहीं ....
सुबह हुई है आज भी
आज भी तुम्हारा दीदार नहीं हुआ
यह दिल जो तुमसे मिलने को बेकरार है
इसे अब कौन समझाये ?
कि शाम के बिछड़े....उस गुमनाम चाँदनी
की रोशनी में आ मिलें, ऐसा ज़रूरी तो नहीं।
ऐसा ज़रूरी तो नहीं कि दो अंजान अल्फाज़
एक ही शायरी बयान करें !
हमसे तुम भी प्यार करो....
ऐसा ज़रूरी तो नहीं।
मैं यहां अकेली बैठी तुम्हारी यादें भरा करती हूं,
कभी आंख नम कर तो कभी उसी से भिखरता काजल संभाले।...
आज भी तुम्हारा दीदार नहीं हुआ
यह दिल जो तुमसे मिलने को बेकरार है
इसे अब कौन समझाये ?
कि शाम के बिछड़े....उस गुमनाम चाँदनी
की रोशनी में आ मिलें, ऐसा ज़रूरी तो नहीं।
ऐसा ज़रूरी तो नहीं कि दो अंजान अल्फाज़
एक ही शायरी बयान करें !
हमसे तुम भी प्यार करो....
ऐसा ज़रूरी तो नहीं।
मैं यहां अकेली बैठी तुम्हारी यादें भरा करती हूं,
कभी आंख नम कर तो कभी उसी से भिखरता काजल संभाले।...