...

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मंज़िल
अपनी ख़ामोश
चाहतों की तरह
इंतजार भी
खामोश है उसका
सपनों की राहें
मुन्तजिर उसकी
क्यूँ ढूँढे मंज़िल
नज़र उसकी
हो गया है
संगमरमर सा वो
अब ना भाये
कोई रंग किसी का
झुलसी निगाह
रास्ता देखती है
मंज़िल है कितनी दूर
ये सोचती है दिखता है
जलता तपता सा एक सेहरा
है आँसुओं की झील में
उदास चेहरा
फिर भी नाजाने
क्यूँ मुसलसल एक नूर
दास्ताँ अपनी मंज़िल की
चाहत की सुनहरी
उम्मीद से लिखता है
है रौशनियाँ उसका नसीब
मुस्कुराकर यही कहता है
NOOR E ISHAL