...

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कौन हूं मैं...
यूं ही देखा खुद को जब आईने में,
पहचान ना सकी खुद को मैं।
ये झुर्रियां कैसे पड़ गई आंखों के किनारे
मुस्कुराहट में भी बल पड़ते से दिखे मुझे,
माथे पर तो सलवटें सी आयी नज़र
कांधे भी अब झुकते हुए से दिखे मुझे।
फिर दो पल रुक गई बिंदी लगाने को,
और आवाज़ भी ना दे सकी खुद को मैं।।
सहमी सी देख रही थी
अपने रूप को,
कि अब टटोला हृदय को मैंने भीतर से
राज़ क्या है-
इस बदली सी शक्सियत का,
जवाब ढूंढा अश्रु की बहती धार में मैंने
तभी इक कोमल सा स्वर गूंजा
पुकारते ही उसके "मां"
सध गई निगाहें आईने पर मेरे।।
मासूमियत मेरी कब
ममता के बिछोने में बदल गई,
बचपन की मस्ती
कब मेरी साड़ी के छोर में सिमट गई,
वक़्त देकर भी कभी भी ना समझ सकी मैं।।
आईने में देखकर भी खुद को ना पहचान सकी मैं।।

- इंदु तोमर





© InduTomar