...

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ज़िद करता!
कोई होता
जो ज़िद करता!

साथ अपने चलने की
कुछ दूर जरा यूं ही टहलने की
चलते-चलते.…..
अपना सिर मेरे कॉधे पे रखता
धीरे से मेरा हाथ पकडता
और मेरी आंखों से कहता
उम्र भर इनमें रहने की।

ज़िद करता!
आस्मां को चुनर बनाने की
चाॅद को जूढे में सजाने की
तारों से आंचल सजाता
तो कभी हट करता
रेत का महल बनाने की।

ज़िद करता!
कभी झूठ-मूठ रूठ जाने की
और सच में मनाने की
तरह-तरह के नखरे लेकर
ज़िद करता उन्हें उठाने की।

ज़िद करता!
मुझपे अपना हक जमाने की
कभी शक़ खाता कोई राज छुपाने की
तसल्ली भी पूरी करता
हर तरह से मुझे आजमाने की।

ज़िद करता!
हद तक मुझे चाहने की
मेरे चेहरे को,आईना अपना बनाने की
सजाता खुदको इस करीने से
कोई कमी न रह जाये मुझको रिझाने की।

जिद करता!
हर ग़म मेरा पी जाने की
दवा बनता सारे ज़ख्म मिटाने की
ग़र कभी मुश्किलें आन पड़ती
हौंसला देता उनसे से टकराने की।

ज़िद करता!
अपना मुक़द्दर मुझे बनाने की
ठान लेता दुनियां को हराने की
मौत से बेख़बर,होके बेसबर
ज़िद करता सिर्फ मुझे पाने की

कोई होता!
जो ज़िद करता.........


दिनेश चौधरी
" फ़नकार "