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शहर ने छला हूँ मैं
शहर ने छला हूँ मैं
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गाँव में पला हूँ मैं,
अब शहर को चला हूँ मैं।
है रात में भी दिन जहाँ,
उस शहर ने छला हूँ मैं।।

पैदल चलो सड़क हँसे,
वाहन यहाँ बुरे फँसे।
हैं पास-पास बस्तियाँ,
ये दूर-दूर दिल बसे।
कभी दीप बन जला हूँ मैं,
हिम सा कभी गला हूँ मैं।
है रात में भी दिन जहाँ,
उस शहर ने छला हूँ मैं।।

इस भीड़ में मैं खो गया
फिर भी शहर का हो गया।
यहाँ छत मिले तो ठीक है,
वरना खुले में सो गया।
तक़दीर की कला हूँ मैं,
सबके लिए भला हूँ मैं।।
है रात में भी दिन जहाँ,
उस शहर ने छला हूँ मैं।।

गाँव में पला हूँ मैं,
अब शहर को चला हूँ मैं।
है रात में भी दिन जहाँ,
उस शहर ने छला हूँ मैं।।

भूपेन्द्र डोंगरियाल
07/09/2020


© भूपेन्द्र डोंगरियाल