...

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मुसाफिर
इस बार ना मिले तो फिर किसी और ज़माने में मिलेंगे सनम
जब कभी फिर टकराएंगे तो कहेंगे उस ज़माने से हम

छूट जाए शाम‐ओ‐शहर की खुशियाँ हमसे पर न छूटेगा कलम
न इश्क़ दिल के कच्चे मकानों से है न किसी ख़ौफ़ के मारे है हम

न कभी कैद करके रख सकोगे हर गुज़रते वक़्त को तुम
चलना हो तो सोच लेना चूंकि अपने मन मर्ज़ी के मुसाफिर है हम

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