...

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पहचान
कहाँ खोए हो तुम, क्या सोच रहे हो?
यही न कि क्या ये वही ज़िंदगी है,
जिसकी तलाश में हम - तुम भटकते रहे,
क्या ये वही ऐशो-आराम है
जिसकी चाह हम - तुम रखते रहे,
न सूरज के निकलने का पता चलता है
न तो कभी शाम के ढलने का,
दिल भी बेचैन है, दिमाग़ भी परेशान है,
हालांकि जीवन में आराम ही आराम है।
शायद नहीं, तो फिर ये हाल क्यों है?
अपनों से दूरी हमने ही बढ़ाई थी तो अब
किसी से न मिल पाने का मलाल क्यों है
क्योंकि शायद हम अपनी ज़िंदगी और
प्यार भरे रिश्तों की पहचान खो बैठे थे,
तभी तो भीड़ में भी तनहाई थी और
व्यस्त इतने की साथ रहकर भी जुदाई थी,
तो अब जब भी आज़ाद हो जाओ तो
इस ज़िंदगी का सही मोल पहचानना,
और अपनों के साथ को ही खुशियों की
सबसे बड़ी सौगात मानना।