...

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मैं और मेरी परछाई...!!!
मैं और मेरी परछाई, साये से जुड़े हैं कहीं,
वो संग चले, जब मैं चला, रुके तो ठहरे यहीं।
धूप की किरनें जब चमकीं, तो वो खिल उठी,
और रात की स्याह चादर में, वो मुझसे सिमट झूम उठी।।१।।

चुपचाप, मौन, कोई आवाज़ नहीं उसकी,
सिर्फ मैं हूँ और मेरी छाया, मेरे संग हर घड़ी।
न कोई शिकायत, न कोई सवालात उसके पास,
बस, मेरी हर ख़ुशी में शामिल, और हर ग़म में उदास।।२।।

जब मैं गिरता, तो वो भी बिखर जाती साथ में,
और जब खड़ा होता, तो फिर सीधी खड़ी दिखती राह में।
कभी लम्बी, कभी छोटी, समय के संग बदलती,
कभी पास, कभी दूर, ये दुनिया की तरह छलती।।३।।

फिर भी अडिग, अनमोल साथी, मेरा अक्स वो,
जैसे मन के भीतर कोई छुपी हुई मीठी तान हो।
कभी अंधेरों में डूब जाती, कभी रोशनी में चमकती,
ये परछाई, मेरी परछाई, मेरे जीवन का प्रतिबिंब सी लगती।।४।।

मैं और मेरी परछाई, साथ चलें, अनकहे राहों पर,
वो मेरे दर्द को समझे, बिना कहे कुछ मेरे आहों पर।
मेरा डर, मेरी ख़ुशी, सब कुछ समेटे वो साथ लिए,
जैसे कोई मित्र हो, बस नज़र न आए, पर दिल के पास रहे।।५।।

आख़िर, कौन हूँ मैं? और कौन है ये परछाई?
क्या वो मेरा अतीत है, या कोई अनदेखी सच्चाई?
मैं और मेरी परछाई, शायद एक ही हैं कहीं,
या फिर दो किनारे, जो कभी मिल न पाएं सही।।६।।

फिर भी, जीवन की इस अनदेखी डोर से बंधे हैं हम,
मैं और मेरी परछाई, साये की तरह संग रहें हम।
जब तक है सांस, तब तक वो मेरे साथ चलेगी,
और जब खत्म होगी कहानी, वो भी ढलके गिर जाएगी।।७।।
© 2005 self created by Rajeev Sharma