...

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..दो वक़्त.. वक़्त के साथ..


मुझे वक़्त के उस साहिल पर जाना है,
करवट बदलती लहरों में बह जाना है।

वक़्त के मल्लाह पर सवार होकर,
डगमगाती परछाइयों में गुज़र जाना है।

कुछ यादें बसती थी उस बस्ती में,
उस सड़क से फिर से गुज़र जाना है।

वो नज़्में, जो छूट गयी थी साहिल पर,
उस सूखे-गीले नज़्मों को गले लगाना है।

वो नज़्में जिनको आधा ही लिख पाया,
उसको स्याही से पूरा भिगोना है।

ऐ! वक़्त सारा कुछ मिला है तुमसे,
पर, मुझे बस तमको पाना है।

सुना है, तुम रुकते क्यों नहीं किसी घर,
चल, आज तेरे लिए आशियाना बनाना है।

हर वक़्त तेरा हाथ थाम चला मैं,
अब तुमको मुझसे कदम मिलाना है।

जिन पन्नों पर धूल बिखरे थे कभी,
उस नज़्म को सबसे वाकिफ़ कराना है।

बेइन्तहां लिखे थे कुछ नज़्म किसी पर,
उसे नुक़्ता.. तक गौर से बताना है

सुना है! तुम बदलते हो वक़्त के साथ,
आज तुम्हें मेरे साथ बदल जाना है।

ओय! वक़्त, अरसों दो वक़्त छीने थे तुम मेरे,
तुम्हें वो सारे वक़्त लौटाना है।

तुमने हमेशा सिखाया है हद में रहना,
मुझे तो आज हद से गुज़र जाना है।

खैर छोड़ो! तुम सुनते कहाँ किसी की...
तुम्हें तो बस अपने मौज़ में चलते जाना
है।।

#Memory
#Friendship
©Sudhir