..दो वक़्त.. वक़्त के साथ..
मुझे वक़्त के उस साहिल पर जाना है,
करवट बदलती लहरों में बह जाना है।
वक़्त के मल्लाह पर सवार होकर,
डगमगाती परछाइयों में गुज़र जाना है।
कुछ यादें बसती थी उस बस्ती में,
उस सड़क से फिर से गुज़र जाना है।
वो नज़्में, जो छूट गयी थी साहिल पर,
उस सूखे-गीले नज़्मों को गले लगाना है।
वो नज़्में जिनको आधा ही लिख पाया,
उसको स्याही से पूरा भिगोना है।
ऐ! वक़्त सारा कुछ मिला है तुमसे,
पर, मुझे बस...