...

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इंतजार
रहता था बेहद इंतजार बारिश का बेसब्र हमेंशा की तरह ही
हा चाह तो थी इस बार भी
बरसी वो पूरे जोर से आंखों के समक्ष
मगर भीगो ना सकी।
हा था अंतर बेशक ही
जो ऑखे महसूस करती थी बूँदो की छुअन आकाश से मौन सवांद करते हुए।
देखती है दूर से बरसता उसे पथरायी मूक ही ।
बदला है सवांद दायित्व ने जो हथेली खुली होती थी सावन के स्वागत मे आज मिली कुछ बचती हुई ।
जिस मन को रहता था बेहद इंतजार बारिश का बेसब्र हमेंशा ही
उसने दायित्वो की छत के नीचे खड़े होकर बारिश के रूकने की दुआ की ।
जीवन की उपयोक्ता साधते हुए
'जीवन्तता' की कीमत कम हो ही गई
बेहद था इंतजार बारिश का,
बरसी वो पूरे जोर से आंखों के समक्ष
मगर भीगो ना सकी।

© Meenakshi