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बचपन का क़र्ज़...
जो गुज़र गया क्या जीवन था,बस अपनों में अपनापन था
कोई भी मौसम आता था अपना तो एक ही मौसम था
लड़ते थे ज़िद भी करते थे, हसते -हसते सब कहते थे
कोई समझे या न समझे हम अपनी बात समझते थे
वो पिता का डाटना प्यारा था,माता का क्रोध भी न्यारा था
चिंता का कोई विषय न था आँखों का सबके तारा था
सम्मान न था अपमान न था,झूठे सच्चे का ज्ञान न था
जो गुज़र गया ना पता चला कितना वो सुनहरा बचपन था
चलता था राज हमारा भी,अपनी भी एक रियासत थी
करते थे हुकूमत ज़िद करके न किसी से कोई बगावत थी
चलती थी नाव बिन पानी भी,बादल की राह न देखते थे
मिट्टी के बने उस चूल्हे में मनमानी की रोती सेकते थे
डरते थे कभी न ज़माने में,सबकुछ था पिता के ख़ज़ाने में
माँ सब ज़िद पूरी करती थी,एक शौक था बस नज़राने में
हर रोज़ बनाते साथी थे अपने भी घोड़े हाथी थे
मिट्टी से सना वो जीवन था,कितना वो सुनहरा बचपन था
बचपन की याद ताज़ा करके इन आँखों को भर जाते है
कितना सुकून था बचपन में,अब उलझन में सो जाते है
दुनियादारी में सिमट गए बचपन के मित्र भी बदल गए
एक पल ना सुसज्जित होता मन, क्यों कठिन हो गया ये जीवन
कुछ बोझ रखा है कांधो पर मुश्किल है चलना राहों पर
कांधो पर पिता के बैठते थे,था माँ का सहारा राहों पर
आँचल के तले जो सोते थे हसते हसते जो रोते थे
कन्धा वो पिता का नहीं रहा,जिससे हम ऊँचे होते थे
बचपन तो गुज़र ही जाना है इसमें ही सारा ज़माना है
यह क़र्ज़ है बीते बचपन का,जो दो पाटो में चुकाना है
काँधे पर बैठके पिता के जो देखा जो सारा ज़माना है
जो क़र्ज़ कभी ना उतर सके,उस क़र्ज़ का फ़र्ज़ निभाना है
वो कन्धा भी अब झुकने लगा वो कदम भी है अब रुकने लगा
लाठी की जरुरत आन पड़ी,यह वक़्त फ़र्ज़ का कहने लगा
धुंधला ना हो उनका जीवन जिनसे जीवन में था दर्पण
ना गीरें वो चलती राहों में जिनके जीवन से था जीवन
यह वक़्त है फ़र्ज़ निभाने का,यह वक़्त है राह दिखाने का
इनको न कभी ठुकराओ तुम जो वजह हैं जग में लाने का
ना पिता का सुना हो उपवन माता का कभी ना रोये मन
इनसे ही था अपना जीवन इनसे ही था अपना बचपन.


© Roshanmishra_Official