...

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बचपन का क़र्ज़...
जो गुज़र गया क्या जीवन था,बस अपनों में अपनापन था
कोई भी मौसम आता था अपना तो एक ही मौसम था
लड़ते थे ज़िद भी करते थे, हसते -हसते सब कहते थे
कोई समझे या न समझे हम अपनी बात समझते थे
वो पिता का डाटना प्यारा था,माता का क्रोध भी न्यारा था
चिंता का कोई विषय न था आँखों का सबके तारा था
सम्मान न था अपमान न था,झूठे सच्चे का ज्ञान न था
जो गुज़र गया ना पता चला कितना वो सुनहरा बचपन था
चलता था राज हमारा भी,अपनी भी एक रियासत थी
करते थे हुकूमत ज़िद करके न किसी से कोई बगावत थी
चलती थी नाव बिन पानी भी,बादल की राह न देखते थे
मिट्टी के बने उस चूल्हे में मनमानी की रोती सेकते थे
डरते थे कभी न ज़माने में,सबकुछ था पिता के ख़ज़ाने में
माँ सब ज़िद पूरी करती थी,एक शौक था बस नज़राने में
हर रोज़ बनाते साथी थे अपने भी...