...

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आदत–ए–खौफ,,,
रातों का खौफ,,,
दिन का खुमार,,
अकेले होने का डर,,
उसकी वो फिक्र,,
एक झुटी आस,,
और,,, ये टूटती हुई डोर,,

हर रोज, हर पल,,
ये खौफ सताता है,, की,,
एक दिन,,,,, एक दिन ये डोर टूट जायेगी,,
मेरी आखिरी उम्मीद भी छूट जायेगी,,
फिर सारी दुनिया मुझसे रूठ जायेगी,,
फिर क्या मैं,,,,, जी पाऊंगी?
हर पल,, इस सवाल से जूझती हूं,,
की कहीं मैं मर तो न जाऊंगी,,
मर ही तो ना पाऊंगी,,

की रोज खुद को दिलासा देती हु,,
मैं हकीकत को झूठला रही हूं,,
मैं खुद को ही बहका रही हूं,,
वाकिफ हूं हर सच्चाई से,,
फिर भी खुद को उलझा रही हूं,,

वो जो फिक्र में मेरी घूलती जा रही है,,
यादें सारी धूलती जा रही है,,

आखिर कब तक रोकूंगी मैं इस बात को,,
कभी ना कभी तो इसे सच होना होगा,,
एक दिन इस फिक्र को भी खत्म होना होगा,,
फिर हम अलग होना होगा,,

तो क्या,, हमारा साथ फिर छूट जाएगा,,
नाता हमारा यूं ही टूट जायेगा,,

आखिर कब तक थामी रहूं इस डोर को,,
कभी ना कभी तो छोड़ना होगा इस छोर को,,
तब क्या,,, उसके बिन रह पाऊंगी,,
इस ज़हर के प्याले को पी पाऊंगी,,
उसके बाद,, शायद ही,, जी पाऊंगी,,

की उसके बचपने से तो,,मेरा बचपना जिंदा है,,
वो खुश है तो दिल ये उड़ता परिंदा है,,
एक दिन ये परिंदा कैद हो जायेगा,,
फिर क्या ये दिल धड़क पाएगा,,

कब तक सच्चाई से खुद को गुमराह करती रहूं,,
मैं कुदरत के खिलाफ जा रही हूं,,
वो रोकने की कोशिश कर रही हूं,,
जिसका होना बोहोत पहले से तय है,,
और मज़े की बात तो ये है की—
,,, मै वाकिफ हू खुदा का इस फैसले से,,
मगर किसी को बयां कर नहीं सकती,,

अब अनजान नहीं रही,, इल्म है मुझे भी की—
की,,,, की अब ये डोर टूटने वाली है,,
मेरी जिंदगी मुझसे रूठने वाली है,,
मैं कब तक उससे रोकूंगी,,
कब तक खुद को इस आग में झोकूंगी,,
कब तक खुद से लडूंगी,,
कब तक कत्ल–ए–आम करूंगी,,
आखिर,,,,,
कब तक खुद से यूं ही जूझती रहूंगी,,
इस डर से यूं ही डरती रहूंगी,,
कब तक,,,

कब तक मुझे यूं जीना पड़ेगा,,
इस मीठे जहर का घुट पीना पड़ेगा,,
अब ये अजियत सही नहीं जाती,,
अब ये अदाकारी की नहीं जाती,,
उफ्फ,,,,,

इतने कत्ल किए,,
एक कत्ल और सही,,
अब तो आदत है इसकी,,
आदत ही सही,,



© Aryz💕 crush 🥰