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रिश्तों का ज़ख्म...

सब रिश्ते थे ज़माने में पर जिते थे यतीम बनकर
मजबूरियों को सरेआम किया सब ने शौक़ीन बनकर.
मुझे ही खबर नहीं थी बदनाम हो गया हु ज़माने में
मेरी बातें चुभ गई ज़माने को लोगो को तीर बनकर.
उन बातो का मतलब निकाल कर काफ़िर बना दिया
गलती नहीं थी फिर भी सजा ए मौत सुना दिया.
रोशनी चुभने लगी आँखों में अंधकार सहता हु
अंधे ज़माने में धुंधला चिराग बनकर जलता हु.
मेरी लौ बुझने लगी बिखर गया ठंडी राख बनकर
सब रिश्ते थे ज़माने में पर जीते थे यतीम बनकर.
हुनर ना सीखा मैंने अपनों को दगाबाज़ कह दू
ऐसे जीने के सलीके को क्या ? जिन्दा लाश कह दू.
दबा हूँ मैं दीवारों में घुटन की आवाज़ बनकर
दूर हो गया उनसे जिन्हे चुभ गया टुटा कांच बनकर.
वो अपने ही थे जो जला गए मेरे अरमानो का घर
वो अपने ही थे जो बिखरा दिए मेरे सपनो का नगर.
अपना कहता फिरता था जिन्हे सारी दुनिया के सामने
खंजर का वार उसने दिया जो बुलाया था अपना कहकर.
आज गुनेहगार हूँ टूटे सपनो बिखरे अरमानो का
आज कर्ज़दार हूँ ज़िन्दगी के उधार साँसों का.
बेपरवाह हो गया हूँ क्योंकि ज़माने से मजबूर हो गया
ज़िन्दगी थी करीब मेरे और मैं खुद से दूर हो गया.
खूबसूरत दर्पण था कभी अब रह गया अहसास बनकर
अपनों ने जला दिया ज़माने की  रीत यही थी
पर क्यों बेवस कर दिया मुझे अपना कहकर.
सब रिश्ते थे ज़माने में पर जीते थे यतीम बनकर
© Roshanmishra_Official