...

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रिश्तों का ज़ख्म...

सब रिश्ते थे ज़माने में पर जिते थे यतीम बनकर
मजबूरियों को सरेआम किया सब ने शौक़ीन बनकर.
मुझे ही खबर नहीं थी बदनाम हो गया हु ज़माने में
मेरी बातें चुभ गई ज़माने को लोगो को तीर बनकर.
उन बातो का मतलब निकाल कर काफ़िर बना दिया
गलती नहीं थी फिर भी सजा ए मौत सुना दिया.
रोशनी चुभने लगी आँखों में अंधकार सहता हु
अंधे ज़माने में धुंधला चिराग बनकर जलता हु.
मेरी लौ बुझने लगी बिखर गया ठंडी राख बनकर
सब रिश्ते थे ज़माने में पर जीते थे यतीम बनकर.
हुनर ना सीखा मैंने अपनों...