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।।चमारों की ढाणी।।
।। चमारो की ढाणी ।।

नदी के आखिरी मुहाने पर एक ढाणी है
चमारों की ढाणी हां चमारों की ढाणी
वहां रहते हैं वो लोग
जो अनपढ़ हैं गरीब है लाचार है
चुकी गांव नदी के आखिरी मुहाने पर हैं
तो कोई सड़क नही
सड़क नहीं तो कोई स्कूल नही
ना कभी कोई कार पहुंची
ना कभी कोई सरकार पहुंची
उस ढाणी में खिलखिला रहा था
एक लड़की का बचपन
वो सोलह साल की लड़की चंचल है
सुंदर है अबोध है अनजान हैं
नदी के दुसरे मुहाने पर हैं दरिंदो की ढाणी
ढाणी में ऐसे दरिंदे जिन्हे जानवर कह सकते हैं
नदी का पानी किनारे पर उमड़ रहा है
मानो सब कुछ अपने अंदर समाने को उलझ रहा है
सर्द का एक दिन वो लड़की पहुंची पानी लेने
उसे डर लगता था नदी के हिंसक जानवर उसे खा ना जाए
लेकिन वो अनजान थी नदी के बाहर के जानवरो से
पीछे से एक हाथ आया मुंह को भींचा
आंखें बंद की और उठा ले गए सुनसान जगह पर
जिस्म के भूखे दरिंदों ने इज़्ज़त तार तार की
एक बार नही कई बार की
लड़की मुंह से कुछ ना बोल दे तो जुबां काट दी
चलकर ना जा सके तो पैर तोड़ दिए
छोड़ गए अधमरे जिस्म को खुले आसमां के नीचे
उधर ढाणी में कोहराम मचा है
लड़की सुबह से मिल नही रही
उसका बाप रो रहा है मां सिर फोड़ रही है
ढाणी वालो ने सारे जतन किए
पूरी नदी को छान मारा
खेत खलियान जंगल सब छान मारे
कुछ ना मिला, मिला तो बस टूटा हुआ घड़ा
एक रात गुजर गई गम सितम मातम में
दूसरे सुबह किसी ने बताया ढाणी आकर
एक नंगी लाश पड़ी है नदी के दुसरे मुहाने पर
बहुत दूरी पर सुनसान जगह पर
बाप घबरा उठा मां बेचेत हो गई
जब पहुंचे ढाणी वाले सुनसान जगह पर
देखा तो एक जिस्म पड़ा था नंगा मरा हुआ
ये कोई मरा जिस्म नहीं था
ये एक स्त्री की अस्मिता थी
स्त्री का मान था सम्मान था स्वाभिमान था
जिस्म ठंडा पड़ा था मानो ठंडे गोस्त की तरह
जिस्म के नीचे की जमीन खून से लाल थी
ये ख़बर ना अखबारों में प्रकाशित हुई
ना कभी टेलीविजन पर प्रसारित हुई
ना किसी की जुबान पर थी
ना किसी के कान में थी
सब मौन थे नेता सरकार समाज के ठेकेदार
लूट गई अस्मिता एक स्त्री के सम्मान की
उसका दर्द समझे ऐसा कोन
दरिंदे खुलेआम घूम रहे इसका जिम्मेदार कोन है
कोई नहीं यहां सब मौन है।

– सुनील तंवर

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