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फिर आया दिसंबर
फिर आया दिसंबर का महीना,
जस्बात आँसू बनकर फिर से बहने लगी हैं।
ओढ़ रखी है मैने गर्म यादों की चादर,
फिर भी क्यों, बिरह की सर्द हवा तड़पाने लगी हैं।
यादों के बाग़ में एहसास का गुल
खिला है, फिर क्यों मेरे दिल में कांटे चुभ रही हैं।
छुपा लिया था वक़्त ने आंसुओं को,
फिर क्यों मुद्दतों के बाद भी अश्क छलक रही हैं।
उम्र बढ़कर सयानी हो गई फिर भी क्यों,
वो ज़ख्मी यादें मुद्तों बाद भी बूढ़ी ना हो सकी हैं।
ज़िंदगी का दिन ढ़लकर शाम हो चला है,
फिर क्यों, हमारे दरमियाँ यादों की चिंगारी बुझती नहीं हैं।
©हेमा
#december
जस्बात आँसू बनकर फिर से बहने लगी हैं।
ओढ़ रखी है मैने गर्म यादों की चादर,
फिर भी क्यों, बिरह की सर्द हवा तड़पाने लगी हैं।
यादों के बाग़ में एहसास का गुल
खिला है, फिर क्यों मेरे दिल में कांटे चुभ रही हैं।
छुपा लिया था वक़्त ने आंसुओं को,
फिर क्यों मुद्दतों के बाद भी अश्क छलक रही हैं।
उम्र बढ़कर सयानी हो गई फिर भी क्यों,
वो ज़ख्मी यादें मुद्तों बाद भी बूढ़ी ना हो सकी हैं।
ज़िंदगी का दिन ढ़लकर शाम हो चला है,
फिर क्यों, हमारे दरमियाँ यादों की चिंगारी बुझती नहीं हैं।
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