...

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इन्सान या अभिशाप.....
होकर शिकस्त शहर का वो राह सुना हो गया।
देखा जो बढ़ते जुल्म को घर बार सुना हो गया।
क्या न्याय क्या अभिशाप है भगवान बसते हैं कहा।
अपराध अब महफूज है वो न्याय देवी है कहा।
हो रहे अत्याचार है राजा की कुर्शी बिक रही।
हो भ्रष्ट जो हर कर्म में उसको ही कुर्शी मिल रही।
सच्चाई अब छुपने लगी मिथ्या दलील गवाह से।
भगवान की ताकत है क्या सब डर रहे अफवाह से।
इन्सान के ईमान भी बिकने लगे शमशान में।
राजा ना कोई प्रबल है ना वचन है अब प्राण में।
धन का वजूद है यहाँ महफूज़ ना कोई यहाँ।
रघुवंश वचन निभा गए रघुवंश राजा है कहाँ।
सीता का त्याग कर दिया कर्तव्य राजा धर्म मे।
लुटती है हर सीता यहां ना धर्म है बेशर्म में।
राजा की गद्दी एक बस धर्म बने अनेक है।
धर्माधिकार की दशा है भ्रष्ट बुद्धि विवेक है।
धन बन गया जीवन यहां जीवन ना धर्म का मान है।
सच्चा यहां बेजान है झुटे की ऊंची शान है।
इन्सान ना कोई यहाँ सब हृदय से बेईमान है।

© Roshanmishra_Official