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इस आजाद दुनिया में जानवर अब भी कैद है।
धूप में झटपटाती आंखें छांव भरी छत मांगती है
नींद की गोदी में सोने के लिए हवा का शीतलता भरा आंचल मांगती है
धरा की गंदगी को खाती रहने वाली जीह्वा मीठी घास का स्वाद मांगती है
बेजुबान होते हुए भी एहसास की जुबां से लोगों का प्यार भरा साथ मांगती है
जिस गौ माता की पूजा करते हैं जिनके आगे हम शीश झुकाते हैं इस कलयुग में वो भी हमसे अपना जीवन जीने का हक़ मांगती है।
आद्रिका मिश्रा
नींद की गोदी में सोने के लिए हवा का शीतलता भरा आंचल मांगती है
धरा की गंदगी को खाती रहने वाली जीह्वा मीठी घास का स्वाद मांगती है
बेजुबान होते हुए भी एहसास की जुबां से लोगों का प्यार भरा साथ मांगती है
जिस गौ माता की पूजा करते हैं जिनके आगे हम शीश झुकाते हैं इस कलयुग में वो भी हमसे अपना जीवन जीने का हक़ मांगती है।
आद्रिका मिश्रा
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