कुछ लफ़्ज... मेरे काम आ गए!
मैंने ख़्वाबों में ही...
कभी देखा था एक ख़्वाब
शायद वक़्त कहेगा
किसी रोज़ तो
हम को भी लाज़वाब...!
तपते सहरा की
देगचियों पर
कुछ शब्द चढ़ा कर...
हो गई थी मैं खामोश़...
और मौन हो गए थे
मेरे सब ख्वाब़...!!
कुछ रोप दिए थे
जमीन में...
बीज से पौध और
पौध से घने शज़र बन जाने को
हाँ.... रख दिए थे वहीं ...