कुछ लफ़्ज... मेरे काम आ गए!
मैंने ख़्वाबों में ही...
कभी देखा था एक ख़्वाब
शायद वक़्त कहेगा
किसी रोज़ तो
हम को भी लाज़वाब...!
तपते सहरा की
देगचियों पर
कुछ शब्द चढ़ा कर...
हो गई थी मैं खामोश़...
और मौन हो गए थे
मेरे सब ख्वाब़...!!
कुछ रोप दिए थे
जमीन में...
बीज से पौध और
पौध से घने शज़र बन जाने को
हाँ.... रख दिए थे वहीं
बाकी बचे-कुचे भी ख्वाब़!!
अब .. जब तुम दूर हो मुझ से
आसमान में उड़ने लगे हो
मैं खुश हूँ बहुत...
मग़र तुम्हारे बग़ैर...
आजकल हूँ बिलकुल बेरोज़गार... सी....
तुम छीन ले गए मुझसे...
मेरे दूसरे इश्क़ की नौकरी भी....
इस खस्ता हाल में मेरे काम आ गए
मेरे लफ्ज़ ,
वो उपजे हैं... सीप से सफ़ेद मोती जैसे
और एक लम्बे तप से निकले हैं
कुंदन बनकर!!!
"वापिस लौट आए अब
मेरे वो सब खामोश़ ख्वाब़"
"मेरी कलम की जुबां बन गए
कुछ लफ्ज़ "
हाँ... अब, मेरे काम आए कुछ लफ्ज़...
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