...

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दूब घास......
देखा होगा सबने कभी ना कभी,कहीं ना कहीं,जिद्दी हठी,दबी घास को,

लाखों बार काटो फिर भी उग आती है वो जरा सी मिट्टी और हवा पाते ही,
जीने का संकल्प उसका,आज तक क्या कोई कुचल पाया उसकी आस को।

वो बहुत साहसी है, सर्वोपरि है उसका हौंसला, मत ललकारना कभी उसे।
वो पर्वत श्रृंखलाओं की राजरानी है,समंदर में भी, विशाल धाराओं की सास है।

उसने कभी नहीं मांगी अपने प्राणों की भीख सिर्फ सिसकती रही,आंसुओं में लथपथ,
उसको दबाया,काटा,रौंदा,फिर भी क्या रोक पाया भला कोई उसकी सांस को।

देखा होगा तुमने वो चुपचाप ज़मीन से चिपकी रहती है,कभी दर्प नहीं दिखाती,
वो भी स्वाभिमान है,समझती है आत्मसम्मान सिर उठाए देखती रहती है आकाश को।

वो चाहे तो बिंध के तुम्हारे पैरों में,तुम्हें मुंह के बल गिरा दे, औंधे पड़े रहो।
बहुत साहस होता है इसमें, कम समझने की भूल ना करना इस घास को।

© आकांक्षा मगन "सरस्वती"