...

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मैं क्या करूं
जो शिकवा करे उनसे गीला, मैं क्या करूं।
फिर अपनो से कोई मशवरा, मैं क्या करूं।

जो बात करने से भी कतराते हैं हरदम!
फिर उनसे खफ़ा होकर बता, मैं क्या करूं।

मुझे दर्द दे कर जिसे बहुत आराम मिले!
उनसे अपने दुखों का गिला, मैं क्या करूं।

दिल में ज़ख्म जो हँस हँस कर देते हैं!
उनकी बेरुख़ी का तमाशा, मैं क्या करूं।

जिनकी नज़रों में कोई कदर ही नहीं!
ऐसे लोगों को फिर सिला, मैं क्या करूं।

जिन्हें मेरी हर बात लग जाती है खलिश!
उनके अपना पन का वास्ता, मैं क्या करूं।

जो हर रोज़ बदलते हैं अपने रंग-ओ-रूप!
एतबार उनके झूठे बातों का, मैं क्या करूं।
© महज़