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आर्यमौलिक अल्फाज़
आर्यमौलिक अल्फाज़


पढना चाहूं-ओ-ग़ालिब तो तुझे पढ़ नही पाता..!
डूबा सा रहता हूं ख्यालों में मैं लिख नहीं पाता..!!

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कुछ आशिकाना लोग भी कैसी हरकतें कर जाते हैं...!
जब लगा लो दिल उनसे तो वो इश्क़ से मुकर जाते हैं....!!
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ये आशिकाना लोग भी नज़र-ए-हरकतें कर जाते हैं..!
गर मिला लो नज़र उनसे तो इश्क़ से मुकर जाते हैं..!!

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तन्हाईयों की हद से इसलिए गुज़रता हूं
के चाहत-ए-हसरतों की हदें बेहद ना हो...!!

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जब मैंने तेरे अश्क़ में खुदको में देखा
तभी मैं खुद की खोज में निकल पड़ा..!!

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हैं इंसान मुसाफिर इस ज़िन्दगी-ए-जहां में सभी यहां
कुछ ज़माने में ठौर पाते हैं कुछ वेमुकम्मल ही रह जाते हैं...!!

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ना आदमी हो रहा हैं औरत के लिए ना औरत हो रही हैं अपने आदमी के लिए...!

बदल रहा हैं यहां हर इंसा-ए इंसा ज़माना-ए-ज़मानगी की आवारगी के लिए..!!

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अनजान हुए कई मिरे अपने लोग मेरे ही चेहरे से...!
जब से मिलने लगे हैं मिरे अपने लोग तमाम गैरों से....!!

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इन नज़रो के वार-ए-ज़ख्म ताउम्र कभी भरते नहीं "मौलिक"
ये वार किसी खंज़र का होता तो कब का भर गया होता...!

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हम ढूंढ़ते रहे आदमी-ए-आदमी में इंसानियत
पर आदमी ने इंसानियत तो ताक पर रखी थी...!

चेहरों पे हर चेहरों की बनावटी थी मुस्कुराहट
जुबा में झूठ के अल्फाज़ो की चाशनी रखी थी...!!

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संस्कृति और संस्कार को देशी ही बचा पाएंगे
शहर के लोग जिहादी कुत्तों से नुचते जाएंगे

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देश की बेटी, संस्कार और संस्कृति को कट्टर हिन्दू ही बचा पाएंगे...!!
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देश के सेकुलर की आस्था रखने बाले हिन्दू की बेटियों को नुचवाएंगे...!!
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ख़ौफ़ में हैं निकलता नहीं उस शहर में आदमी...!
पहचानता ही नहीं शहर में आदमी को आदमी..!!
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इश्क़ वालों की तमाम वस्तीयां आवाद थी
हम जो गुजरे वहां से तो गुनहगार हो गए...!

घूरती रही तमाम नज़रे मुझको झारोखों से
हमने जो उन्हें देखा तो कसूरबार हो गए...!!

हमें तो जालिम ही कहते हैं लोग ज़माने के
जुल्म उनके इश्क़-ए-वार एतवार हो गए..!!
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नजदीकियां अक्सर वेकद्र ही रही
फांसले रखों तो कद्र पता चलेगी...!!

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नोक झोक, गिले तकरार सब मोहब्बत के हिस्से हैं...!
लगा लो गर इन्हे दिल पर तो तन्हाइयो के किस्से हैं..!!

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ये दर्द हैं जो इस दिल से निकलता नहीं
देख कर आंसू भी तो कोई पिघलता नहीं...!!

मिल गए हो क्यों इस राह के अनजाने में
धड़कता दिल क्यों नहीं तुम्हारा मचलता नहीं..!!

लौट जाओ भी अब तुम जिंदगानी में आपनी
देख कर तिरि नफरत दिल मेरा सम्हलता नहीं...!!

ए दिल ना लगा तू इन वेगाने दिलों से ये दिल
दर्द दिलों का भी देख, वो खुद भी पिघलता नहीं..!!

दर्द तिरा भी हैं शामिल मिरे इस दिल-ए-दर्द में
दर्द के इस ज़माने से ये दिल क्यों निकलता नहीं..!!
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कितना जीते हैं कितने मर मर के जीते हैं लोग
कौन पूछता हैं गम किसी का इस शहर के लोग
दर्द-ए-मौज की तन्हाइयों के सफर में मरते हैं लोग
हसरतों के पानी में जहर की शराब को पीते हैं लोग
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पूछा नहीं किसी ने के जुल्म क्या हैं हमारा
लोगों की बातों में आके लोगों ने हमको हैं मारा
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बहुत...