...

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आखिर कब तक????????
दम घुटने का दर्द कैसा होता है,
ये वो कहां ही समझेंगे ?
घर से निकलने से पहले
जिन्हें कुछ सोचना नही पड़ता
अकेले निकलने इनका से मन नही डरता
अपने मनपसंद कपड़े न पहनने से
हरदिन अपना मन नही मरता
खुद की कोई गलती न भी हो
फिर भी सामाज जिन्हे शर्मसार नही करता
खुली हवा में सांस लेने से पहले
जिन्हें किसी की नज़र का कहर घायल न करता
वो इस घुटन की तीस का ज़हर
क्या ही परचेंगे?

किसी ने चेढ़ दिया, बाहर मत जाओ
किसी ने देख लिया, बाहर मत जाओ
घर पे बैठो ना, शांत रहो, इन्हें मुंह मत लगाओ
आखिर कब तक इक नियम का इंतजार करे?
आखिर कब तक इस घटिया सोच का जुर्माना हम भरे?
अरे खुले दरिंदे घूम रहे है, कब समझेंगे हम?
हमारी आज़ादी पे नही, इनकी पैरवी पे रोक लगाओ।

अकेले घूमना आज़ादी का अहसास करवाता था मुझे
पैदल चल हर चीज़ बारीकी से देखना बहुत भाता था मुझे
सब से लड़ती थी के मै समझदार हूं, खुद की रक्षा करने में सक्षम हूं
मन में डर था पर विश्वास भी था के सामाजिक स्थानों पे रक्षम हूं
अब समझी सब ठीक बोलते थे, हैवानियत से अनभिज्ञ,
अपनी सुरक्षा करना कहां ही आता था मुझे?

हां, माना मैंने सब कोशिश करते है दर्द समझने की
सब में गुस्सा है, सब हमारे लिए संघर्ष कर रहे बुराइयों से उलझने की
पर क्या सचमुच हमारा दर्द कोई कभी समझ भी पाएगा?
क्या कभी इन्हें इनकी दरिंदगी पे अफ़सोस भी आएगा?
कब, कहां, कैसे होगा ये, ये गुत्थी की उम्मीद ही नही सुलझने की।
© मिलन