...

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मज़ाक
ऊपरवाला भी कभी- कभी
इस हदतक मज़ाक करता है
खुशियां आईने में दिखाकर
मेरे ग़मों का हिसाब करता है।

बड़ा नादां है मिरा दिलबर
हंस- हंसकर आदाब करता है
खुलकर मिलता है मिरे रक़ीब से
और हमसे हिज़ाब करता है।

गिन गिन के खंजर घोंपे हैं
हमराज़ ने ही मिरी पीठ पर
ना जाने किसके इशारे पे
ज़ख्म बेहिसाब करता है।

ये मिरी क़िस्मत का लेखा है
या मुनाफिक मोहब्बत का खिताब
मिरी बर्बादी के किस्सों की, हर कोई
क्यूं सनसनीखेज़ किताब करता है?

बड़ा शातिर है मिरा कातिल
ख़ुद मिरी मौत की ख़ुराक़ करता है
मिरी मालूमात का तो फक़त छलावा है
मुझे लापता करने की फ़िराक़ करता है।

आस्मां हंसता है मिरी तदबीर पर
उसको भी है ग़िला मिरी तक़दीर पर
क्यूं वक़्त बे वक़्त अश्क टपका कर
मिरी बनती तस्वीर खराब करता है।

अब छोड़ दिया हमने दिल लगाना फ़नकार
बस यूंही गुजरते हैं,यारे गली के पार
ना आह है ना कसक है दिल में बाकी,फिर
क्यूं कोई हमसे सवाल-जवाब करता है?

ऊपरवाला भी कभी-कभी.........



दिनेश चौधरी 'फ़नकार'