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वाह
वाह शब्द से
आह की कभी पहचान
होती नहीं
इसके मुख से
कभी किसी के लिए
आह निकलती नहीं
इसने कभी न देखी
किसी की आह
इसने तो सदैव
खुशियों को आमंत्रित किया
किसी की आह देखी
तो भी
उसकी मुस्कान को ही
प्रेरित किया
कितनी भी आह में हो
आह छिपा
कह गई ये वाह
क्या मकसद था वाह कहने का
चेहरे पे मुस्कान बनाए
रखने का
वाह तो वाह होती है
आह की न कोई कीमत होती
जिसने पहचाना वाह
उसने बनाई
अपनी तकदीर वहाँ
क्या तुम्हारी
वाह से मुलाकात हुई
मुलाकात हुई
तभी तो तुमने
आह को न भाव दिया
तुमने आह को
नज़रंदाज़ किया
ये वाह ही तो
तुम्हारी पहचान बनी
आईना भी तुम्हे देख
खुश हुआ
अपनी ही...