...

3 views

पन्ने डायरी के
वो अधूरे से हैं खाब मेरे बिखर गए है ये मंजर देख
अब खत्म हो गया है पागलपन राख से ही आग रौंदी गई
वो बढ़ता हुआ आतंक और खौफ खा रहि ये रातें देख
जब बढ़ा है कब थमा हैं आते हुए डर की आखरी झंकार
रो रहा है हर कोना सहमा गया हैं बढ़ता निशाचर तिमिर देख
छुँछ हुआ है इंधन इस शव का उड़ा हैं वाष्प सा
ओ सर्वज्ञ सूख गए लोचन सलिल रह बची तो शुचि देख
हे विप्र जाग उठी थी जो कृशानु धरा गहन और अम्बर मे
अति भयावय हैं ये और ये भी दृष्टा बना हैं कोलाहल देख
रौंदी गई थी जो दीवारे तमाशे की आग बुझाने को
भय नहीं उठती हिलोरो से पर जलधि सा मानस खुश्क देख
बैठा है माथ पकड़ मन मुड़ समझत हैं क्रीड़ा लकीरों की
थम जाएं तो सांस में बढ़ रही हैं ये पीड़ा हर आंँस देख
तेरे मन का भीषण दानव पहुंचा अंत अंकप्रकास को
वो अधूरे से हैं खाब मेरे बिखर गए है ये मंजर देख.......




~शिवम् पाल

© शिवम् पाल