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"कल्पना काल"
तीन काल में मै इस चल रहे काल को कल्पना मानता हुँ,
दुनिया ने क्या खूब सीखाया है अब तो यही सच मान के चलता हुँ,
जो मेरा नहीं हो सकता उसे मै पराया मानता हूँ,
जीवन की हर सीमा को पार करना चाहता हुँ,
जीवन की हर घड़ी में मै पाखंडी बना फिरता हुँ,
क्युकी ख़ुद को बहोत बारीक़ी से देख रहा हूँ,
लिखाई पढ़ाई में कुछ ख़ास नहीं था बस जिंदगी का व्याकरण सीख रहा हूँ,
गया वोह दिन जब क़लम की साही से कविताएँ लिखता था अब भी लिखता हुँ,
बस उँगलियों का इस्तेमाल करके कविता लीखता हुँ,
डाकिया के खतो का घंटो इन्तजार करता था अब व्होटसपे हाले तमाशा जिंदगी का पुछता हुँ,
मेले में कीराये की सायकिल चलना शुकून लगता था आज वो शुकुन आम हो गया है क्योंकि खुद की गाड़ी चलाता हूँ,
आज ना जाने कैसें कैसे स्वादिष्ट भोजन मीलते है पर वोह माँ की बनाई हुई रोटी को ज्यादा स्वादिष्ट मानता हूँ,
कविताएँ तो बहोत लोगों नें लिखी मगर ख़ुद के बारें में कविता पहेली बार लिखता हुँ,
मैं ख़ास नहीं बन सकता और किसीकी आश भी नहीं बन सकता यह मैं जानता हूँ,
अगर भी गया तो कोई गम नहीं पर कविताओ के जरिए मर के जिना चाहता हुँ,
इन तेडि मेड़ी पंक्तियों को ज़रा सी नज़र से पढ़ लेना क्योँ की तेडे मेडे सफ़र से गुज़रा हुँ,
वैसे तो कई पंक्तियाँ है पर पुरानी पंक्तियों के साथ जिना चाहता हूँ
तीन काल में चल रहे काल को बस कल्पना मानता हूँ,






© Deep's Mahedu