...

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मैं।
हर रोज़ ही मैं टूटती हूँ
हर रोज़ बिखर सी जाती हूँ
इस बीच मैं हज़ारों बार
खुदा से शिकायत भी कर जाती हूँ,
दिल मेरा सवाल ये करता है
क्यों मेरे साथ ही ये सब होता है?
मेरी ये बातें सुन
खुदा मुझ से मेरा ये कहता है
तू टूटती है,तू बिखरती है
पर असल मेे तू सिमटती है
तू पिघलती कोई मोम नहीं
ऊपर को बढ़ता ज्वाला है।
किसी डिब्बी मॆ बंद अंधेरा नहीं
तू आसमान में चमकता सितारा है
तेरा बिखरना भी तो ठीक है कि
हर अगली सुबह फिर तू चलती है
तू भीड़ मेे दबती आवाज़ नहीं
कल के इन्साफ का बुलंद नारा है।
आज की रात अंधेरे की ही सही
पर कल का उगता सूरज तुम्हारा है।

© fayza kamal