ख़त
सुनो प्रेम....हाथ खींच कर ले गई थी उन्हें छत पर और दिखा दिया था छत से चांद की दुरी जब कल दीदी पुछ रही थी यहां से तुम्हारे शहर की दूरी.. और इसके जवाब में मेरी आँखों के बिलखते स्वप्न तुम तक पहुंच गए थे शायद! यही वजह है जो भौगोलिक दूरी की इस अनिश्चितता के बीच मुझे रात सदैव प्रिय रही है क्यों की वह हमारे बीच की दुरी को आँख बंद करते ही एक ही झटके में कम कर देती है.. अजीब है ना... हमारा कोई अति प्रिय हमारे बिना जी सकता है यह छोटा सा सत्य जीवन का विषम दुःख है और कटु सत्य भी!! लेकिन क्या हो सकता है बताओ.. हां यह सच है की मुझे ज्योतिष शास्त्र में कोई दिलचस्पी नहीं पर गौर से देखती रहती हुं अपनी हथेलियां जिसमें कहीं एक महिम्न रेखा मिल...