विनाश की नींव
प्रकृति का कहर, मानव ने बवंडर चलाया,
अपने स्वार्थ में अंधा, खुद को भगवान बताया।
पृथ्वी को सताया, विकास के नाम पर,
जलाया सबकुछ, विनाश के इस काम पर।
कहीं बाढ़ से बहा सबकुछ, कहीं पड़ा सूखा,
ये क्या किया हमने, अब दिख रहा ये रूखा।
शिशु रो रहा, माँ भी जल में बह गई,
पिता पड़ा अकेला, उसकी आँखें कह गईं।
कम्बल में लपेटा, अब दिशा कौन सी जाए,
सोच में डूबा, दिल से रोता, कोई राह दिखाए।
ना खाने को कुछ, ना रहने को ठिकाना,
नन्हीं जान के लिए, कहां से लाऊं दाना।
हे...
अपने स्वार्थ में अंधा, खुद को भगवान बताया।
पृथ्वी को सताया, विकास के नाम पर,
जलाया सबकुछ, विनाश के इस काम पर।
कहीं बाढ़ से बहा सबकुछ, कहीं पड़ा सूखा,
ये क्या किया हमने, अब दिख रहा ये रूखा।
शिशु रो रहा, माँ भी जल में बह गई,
पिता पड़ा अकेला, उसकी आँखें कह गईं।
कम्बल में लपेटा, अब दिशा कौन सी जाए,
सोच में डूबा, दिल से रोता, कोई राह दिखाए।
ना खाने को कुछ, ना रहने को ठिकाना,
नन्हीं जान के लिए, कहां से लाऊं दाना।
हे...