...

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अंधेरी रात और मैं
सफर एक अंजान रात में ,
मैंने लोगो को रात के अंधेरे में ,नींद के आगोश में जाते देखा ,
किसी को खुशी से झूलते देखा ,
तो किसी को ,निशा के, निराशा को ताकते देखा ,
हां! ,,,,,,,,,,,,,,
मैंने रात के अंधेरे में किसी को अपना अस्तित्व खोते देखा है ।
वो सफर जो कभी खत्म ही नहीं होता,
निरंतर बढ़ती हुई चाल,
झरोखों से उड़ते हुए बाल ,
सुंदरता पर लगाते काजल ,जो चार चांद,
कायल है उसकी काली जुल्फों में ,
हां! ,,,,,,,,,,,,,,,,,
मैंने उस लटाओं के फंदे में सब को उलझते हुए देखा है ।
इस सफर में धर्म, समाज की कोई कोई जगह नही,
सब की मंज़िल अलग ,बस राह एक होती है ,
यही,कभी इंशानियत मिलनसार होती है ,
तो कभी इंशनियत शर्म सार होती है ,,,
हां! ,,,,,,,,,,,,,,,,,,
मैंने इस राह में किसी के ज़िंदगी को विलीन होते देखा है ।
हां! ,,,,,,,,,,
मैंने इस सफर में ज़िंदगी के लम्हों को मरते देखा है ,,,,,, हां! मैंने इस सफर में बहुत कुछ देखा है ,,,,,,,,,,,,,

© @खामोश अल्फाज़ ©A.k