...

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मज़दूर
मजबूर है वो, नंगे पाँव चलने को।
खुला बदन ले,
तपती धुप में जलने को।
सर्द भरे दिनों में,
खुले आसमाँ तले, ठिठुरने को।
टपकती छतों वाले मकानों मे
सारी रात जगने को।
छाले पड़े हाथों में,
वे थाम लेते हैं औज़ारों को।
पर्वत का सीना चिर
राह बना देते हैं वे,
राहगीरों का जीवन सरल करने को।
धरती फाड़ भर लाते हैं वे
जल की बूंदों को अंजुरी में,
औरों की प्यास तृप्त करने को।
अधपेट सोने को लाचार
हर पल लड़ते हैं वो
जीने की जद्दोजहद के बीच
हर रोज मरते हैं।
खटते हैं वो हर रोज
उदर क्षुधा शांत करने को।
दहकती भट्टी में,
ईंट बन झुलसते हैं वो
थोड़ी खुशियाँ खरीदने को।