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अमर दूत
अमर दूत

रग-रग रोम रोम में तू ही निजमन मेरा अभिभूत था।
मैं बदली या जग बदला,राज ये गहरा बडा अद्भुतथा।

विधाता ने ये तन गढ़ा था,मन कर्मन के वशीभूत था।
गुरू दृष्टि के स्पर्श मात्र से,पल में बदला मेरावजूदथा।

कण कण में तू समाया,तेरा दीदार था हरएक शय में
अंहकार, मद, लोभ,मोह को किया तूने पदच्युत था।

भाल प्रकाशित तेरी चरण रज से,पायानूरअलौकिक।
जीवन को दिया अर्थ सनातन, तू ही मेरा अवधूत था।

पावन भई ,जब तेरी वाणी का किया 'सुधा' रस पान ।
सतगुरू तेरा हृदय विशाल बनके आया तू अमर दूत था।