...

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एक दिन ढलता है..
वक़्त बचपन का हो या पचपन का
आज नहीं तो कल बदलता है

सौ सौ बार कहकर भी वो सुनते नहीं
शिकायत पर उनकी सिस्टम ऐसे ही चलता है

शायद उनके तानों में गानों की है ताल
इसलिए आज हालत सिस्टम की है बेहाल

इस पर उस पर सब पर है ये जिम्मेदारी
कदम उठाओ आवाज उठाओ यही तुम्हारी बारी

नहीं किसीने यह सिखाया पथ तुमको डरने का
फिर क्यों सच को कहने से पहले ही ठहरने का

याद उसी की आती है जो काम तुम्हारे आता है
जो डरकर लगाए फांसी वो डरपोक कहलाता है

आज तुम्हें मालूम नहीं किस्सा विश्वास का
तभी तो तुमने सहारा लिया पैसों की प्यास का

जीना है तो जी कर देखो जीवन आदर्श यहां
कौन देखेगा आबादी में दिखे डरपोक जहां

फिर हम दोनो चल पड़ते है
दोस्त नई दुनिया की ओर

आवाज उठाने पर ही दिखेगी
तुझे जीवन की चहकती भोर

सूरज एक दिन ढलता है
फिर वो ऊपर आता है

अन्याय के आगे डटकर ही
हर कोई न्याय को पाता है
© deeply soulful
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